Tuesday, September 20, 2011

कम्पित तन

कम्पित तन  और
शंकित  मन के मध्य
लोग कहते है अपने
वजूद को ख़त्म कर के
जीवन को देखो ---?
नई परिभाषा बनेगी
मै अचंभित ---
उस पल को निहारता हूँ
जब अमलतास पर
कोई बेल चढ़ेगी -----?????????

Friday, September 16, 2011

गद्दार


गद्दार
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आधुनिक होते वक्त में 
अजब दास्ता है -----
आदमी -आदमी नहीं 
अब तो गद्दार है ----
व्यंजनाओ के स्तर पर 
गद्दार वो अभिव्यक्ति है 
जो खुद को ज़िंदा रखने के लिए 
जमीर को मार देती है 
कर जाती  है 
विश्वासों का दमन 
और लिख जाती है 
गद्दारी की क्रान्ति 
मित्रो ---
गद्दारी वो निर्वस्त 
भावना है जो 
खुद को उचित बताती है 
पर उसे नहीं मालुम 
ये वो सिद्धांत है 
जो गिरते हुए नित्य 
आयाम है ---
अभिव्यक्ति के सोपान पर 
बिखरा हुआ वो लम्हा 
जो तिरस्कार के योग्य है 
इस लिए मेरा  ये कहना है 
गद्दारी वो 
शब्द है 
जिसे स्वीकारना 
असत्य है ------- ?????

Thursday, September 15, 2011

लफ्ज


लफ्ज 
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जब लफ्ज खो जाते है 
हम समझ जाते है ---
हवा का वेग बन कर तुम 
गुजरते हुए सिहरन सी 
दे जाते हो ----
और मै निर्विकार ---निरुत्तर 
सहम सा जाता हूँ -------
मुझे पता है ----हवाओं का 
कोई रुख नहीं होता 
वो दिशाओं में व्याप्त है 
मेरे संस्कारों में कही 
आगाज है -----
निरंतर --फिर निरंतर 
वास्तविकता के धरातल पर 
वही- कही ---
हम अभिव्यक्ति के लिए 
लफ्ज खो जाते है --------?

Wednesday, September 14, 2011

शब्द


शब्द
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और मेरे शब्द टूट जाते है 
जब भी सच बोलता हूँ ---
तुम गर्म मर्म की बात करते हो 
संवेदनाओं को उड़ाते हो 
नये आयामों की बात करते हो 
ये सच है वही मेरे शब्द फिर 
टूट कर बिखर जाते है ----
टूट -टूट जाते है ----?

Tuesday, September 13, 2011

चाहत


चाहत 
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चाहत की जमी में 
आरजू थी जिये---
क्या करूं---बेबस 
लाचारी की दास्ता
फिर वही --
इतने --------
करीब से गुजर 
गया कोई -----?

Monday, September 12, 2011

भीगे मर्म


भीगे मर्म 
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मार्म जब भीग जाते है 
तुम बहुत याद आते हो 
खो जाते हो मेरे विचारों में 
फिर बहेक - बहेक से जाते हो 
मै मर्म को भीगने से बचाता हूँ 
तुम बरस से जाते हो --
मुझे अच्छा लगता है
तुम्हारा बरसना 
मेरा भीगना ---
अंत में प्रत्यंचा 
पर गुनगुनाता हूँ---तुमको 
खुद को ----? कल्पनाओं के 
उस शिखर पर जहां 
बादल आरम्भ होते है 
तुम आकार बदलने लगते हो 
मुझे भय लगता है की कही 
इंद्र धनुष की खूबसूरती 
तुम्हे मुझे दूर ना कर दे 
दमित भाव लिए मै 
समय को रोकना चाहता हूँ 
मुझे पता है 
काल को वश में नहीं किया जा सकता 
पर मेरा प्रयास जारी है --रहेगा --
क्यों की मेरा मर्म भींग चुका है ---
उसकी सुलगन 
धुवा बन कर मेरे पूरे अस्तित्व को
जला रही है ---
मुझको शीतलता की उम्मीद है --?...

साए


फितरतो के साए में जीते थे हम------

कोई बताये परिंदों के साए भी कही होते है ----

Saturday, September 10, 2011

शांत झील


शांत झील
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शांत झील में फेंका गया पत्थर 
मुझे बैचेन कर जाता है हर वक्त 
तरंगित लहरे बया करती है ---
उसके आंदोलित स्वरुप को ----
एक बोझ बन जाती है वो झील 
फेंके गये पत्थर से ---
और मै घुमाव दार चक्र में 
उलझ जाता हूँ -------
फेंका गया पत्थर --वो तरंग 
वो मेरा आंदोलित होना ---सहमी झील में 
थिरकन पैदा करने को व्याकुल रहता है 
पता नहीं और कोन आये और शांत झील को 
तरंगित कर जाए -----एक और बोझ दे जाए ---

Friday, September 9, 2011

बारूद की भाषा और हम


बारूद की भाषा और हम

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मर -मर के जीते है हम आज 
किस- किस की बात करे आज 
जिस राह  पर चलते थे बे- खोफ 
आज बारूद बिछे है मंजिलो में वही
भाषा बारूदी है मजहब नहीं कोई 
अक्स भी नहीं ज़िंदा है देखो तो यार 
कितने हैं ज़ख्मात हरे, आज राहों में 
अस्मिता   बारूद बन कर पीर झरूँ यारा---
सफ़र अभी लम्बा बहुत है यार ---
क्या कहूं बारूद की भाषा और हम और आप ----??????

यौद्धा एक उलझा सवाल ---?


यौद्धा  एक उलझा सवाल ---?
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 यदि हम भी
 तुम्हारी तरह
 दिखावे और अय्यासी की 
जिंदगी जीने का शौक रखते तो  
विजेता बनकर
जीते ---पर 
 तुम पर हमारी जीत का
अहम् कारण
दिखावे से दूरी
 और सच्चे यौद्धा  का जीवन जीना ही है
 विजेता बनने और फिर बने रहने के लिये
 व्यक्ति में संयम, सादगी और 
लगातार कठोर परिश्रम की
 खूबियों का होना बहुत अनिवार्य है।
मंथन की सतह पर 
खो चुका अस्तित्व अब नकारने लगा है 
अपनी अस्मिता को -----
एक अनचाहे चक्र में दफ़न होने को तेयार नहीं 
मेरी अस्मिता ----------
मेरी विवेचना नकारती है ----
क्या -----
पैसा और प्रतिष्ठा पाकर भी जिनके कदम नहीं 
लडख़ड़ाते वही लंबे समय तक कामयाबी के शिखर पर टिक पाते हैं। 
ये प्रशन आप पर छोड़ता हूँ -----
 

Tuesday, September 6, 2011

दफन

दफन
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किसान की वेदना
तब समझ में आई
जब दफन हो गयी
उसकी लुगाई =====
और वो जमीन जो
गिरवी हो गयी कर्म में
जमीदार के मर्म में ----...
मै आज भी निर्विकार
सोंचता हूँ हर पल ---
क्यों होता है वो लम्हा
दफ़न ---एक विकार में
आह्लादित होता हूँ जान कर
वर्तमान की कब्र गाह पर
लम्हों -पालो को सिकुड़ना
मेरा अनजान बनना---और
किसान का कर्म करना ----
सच है आज बुनियादी बातो का
रोना --फिर  चीखना और
अंत में खामोश होना -----?
वेदनाओं को खोना ------------????????
कह सकता हूँ किसान की वेदना
अब समझ में आई --!!!!!!!!!!

Friday, September 2, 2011

इन्तजार है


तूफानों में भटकते हुए 
अब ज़माना हो गया --
मगर चन्द ख्वाब अभी भी-------
मेरे जहन में  दफ़न है 
ज़िन्दगी मुझे अपने रास्ते हाँकती रही
और हम ------
पुराने ख्वाबों की चादर ओढ़ कर रात गुजारते  रहे 
जानता हूँ..
सारे सपनों को हकीक़त की धूप नसीब नही होती
फिर भी एक अनजान चाहत मुझे बांधे रखती है 
तुम्हारे समागम में मुझे आज भी 
अपने मर्म की गर्मी के  एहसास का
इन्तजार है --------