Tuesday, May 31, 2011

"भूख



मात्र एक शब्द नहीं है
"भूख "---------------
एक गूंगी अभिव्यक्ति भी नहीं है
"भूख "--------------
सर्द रात की आगोश में
रोशनी जब ख़त्म हो जाती है
अन्जान-अभिशप्त
पेट की आग है ------ये
"भूख "--------------
ठिठुरे    हुए   अंधेरो  में  
दुसरे  को मारने    की फ़िक्र  है
"भूख" ---------
मेरी रचना है एक
"भूख" ------------------
भूख की मर्यादा और
मेरा समर्पण ----
टकराते हुए विचार
फिर सहमा -सहमा सा
चिराग    ----
मध्यम रोशनी और पीड़ा
भूख की ----
असहनीय  -असहाय
व्यंजनाओ  के  बीच
शहर  में हो रहे  जलसे  में
"भूख " की बात
कूड़े का बंद डिब्बा ---
उसमे पड़ा बंद भोजन
अनमना मन ---
घुटन ही घुटन ----
संवेदनाओं का वेग और
मेरी भूख ------
मात्र एक रोटी की चाहत ----
कूड़े में पड़ी रोटी गायब ---
मुझे आज ज्ञात हुआ की --
भूख एक
ऐयाश बर्बर कोम का
नाम है
जो खुद को ज़िंदा
रखने के लिए
दुसरो को मार देती है -------!!!!

Sunday, May 29, 2011

टकरा गये

आज हम फिर पत्थरों से
टकरा गये ------
अनजान राहे --
उन्मादी विचार
सम्प्रेषण का तरिका
और खामोश अभिव्यक्ति ---
स्काच का वेग ----
गरीबी की बात ---
नया चिंतन --
अंत हिन् बकवास ---
सच है आज फिर हम --
पत्थरों से
टकरा गये ------
..

Saturday, May 28, 2011

धरा
मौन हो चुकी वेदनाये 
अब धरा पर क्या कहूँ --
संवेदनाओं के भवर में 
वेदना की क्या कहूं----
आकाश गंगा के समंदर 
पर धरा को क्या कहूँ---
एक मजलूम अवस्था    
के वाद को क्या कहूं---
ज्ञात है मुझको अभी भी 
तुमने सहा क्या -क्या यहाँ ---
सहन की सीमाओं को तो देखो 
अब धरा पर क्या कहूँ-----
मच रहा है तांडव --
भूंख -ओ -बेचारगी  --
हो रहा खननं तो देखो ----
अब धरा पर क्या कहूँ---
एक मुठी अनाज की चाहत  ---
खुद ही देखो ----ऐ जहां-----
ऐ-धरा के वासियों 
अब तो दोहन रोक  लो  ---
खनिजो की खान को मित्रो 
अब तो ज़रा सोने तो   दो ---
चेतना भी अब तो खोई 
इस धरा पर-----
तुम ही बोलो ऐजहां 
शब्द ही आवरण है झूठ सब 
अभिव्यक्तिया ----
ऐ धरा अब तुम ही बोलो 
खो गयी है चेतना  ----
बस ये अब याद नहीं ---
तू धरा हो तुम से हम है 
इससे अधिक 
और क्या
 में बोलूं 
ऐ धरा तुमको 
प्रणाम ----!!!!! 


Friday, May 27, 2011

जमीर


जब भी तुमने देखा मुझे 
मैंने पाया ----
अपनी जर्जर जमीर 
एक तुम थे ---
मुझमे अपने को 
खोजते हुए ------
एक मै हु ---
तुममे --जमीर 
खोते  हुए ----?

वार्षिक समारोह


अवसर था पुराने विद्यालय का  
वार्षिक समारोह  
हम भी आमंत्रित मित्रो ---
सभागार 
खचा-खच भरा हुआ --
वक्ताओं ने ---
मुह खोला ---
फिर बोला 
शिक्षा बुनियादी 
जरुरत है -----?
हमें संस्कारगत  शिक्षा 
पर जोर देना  ही ---
परम कर्त्तव्य है ----
हमने इतनी
योजनाओं को बोया ---
घन से ढ़ोया---
बड़े प्रयोग किये है --
इसी लिए ----
आज खड़े है ------
अरे बच्चो----
जीरो का 
आविष्कार हमने ही किया है ---
तमाम बाते ----
खामोशी से 
सुनी मैंने ---
मन बहुत खुश  था --
अतीत कितना 
विवेकी था --
वर्तमान भी विवेकी है ---
भविष्य तो --
नया इतिहास लिखेगा ----
तभी मित्रो एक  घटान 
घटी ----
समारोह में 
दस लाख का अनुदान 
वो भी ---
गडित विषय पर ---
तालियों के मध्य --
मै भी आनंदित ---
सोंचा -----
बच्चो से दस लाख लिखवाऊ 
मजाक में 
पास बेठे बच्चे से कहा 
दस लाख लिखो ---
उसका कहना था --
इकाई - दहाई- से अधिक 
अभी ---मुझे 
कुछ नहीं आता है ---
मेने कहा ---
तो दस लाख क्या है ----
उसने मासूमियत से कहा ---
सार्टिफिकेट से हमारा 
गहरा नाता है ----
अंको की गड़ना 
से मुझको क्या करना 
नेताओं का तो ये मंथन 
पुराना है ---
ये तो एक फसाना  है 
मुझे अंक की जरुरत नहीं ---
बस इकाई से ही ---
अपने को बहलाना है ----?

Thursday, May 26, 2011

गुलाबी रंग


कल अचानक
सूनी सी संध्या में
जब मै जाग रहा था
पुरानी फ़ाइल से एक
गुलाबी लिफ़ाफ़े का कोना
झाँक रहा था ----
भूली यादो का वो
कोना -----
तुमको मेरे पास
मेरे अक्स में ---
देख रहा था ----
ना बदलने का नजरिया
और मेरा फटी जेब का
रोना -----
आज अचानक ------
रंग भी बदल रहा था
कभी ---
गुलाबी रंग ---
हलके पीले में परिवर्तित
नये रंग को उकेर रहा था ---?
तुम आज फिर आई
मुस्कुराई ----
अनजाने में सही
मेरा जेब में हाथ
रेंगना ----
भारी हाथो में ------भारी जेब ---
मंथन में आज फिर तुम
मुझमे गायब थी ---
और मै
वही--पुराना रोना
फ़ाइल को वो कोना
गुलाबी रंगों में खोना
----जारी है ---फिर पीड़ा
को ढोना----------??????

माँ


माँ ----
एक शब्द नहीं
भावना है -------
उसकी व्याख्या नहीं
कर सकता -----
दोस्तों ----
व्याख्या तो उसकी होती है
जो अनुभूतियो से परे हो ---
अनुभूति तो
महसूस की जाती है ----
उसकी व्याख्या नहीं
हो पाती है --------?
वेसे ही माँ ---
व्याख्याओं से परे
कोमल स्पंदो के तले--
एक भावना है ---
पीड़ा से उसका
पुराना नाता है ----
खुद गीले में रहकर
संतानों को सुख में --
सुलाना तो
एक बहाना है -----
लडखडाते कदमो का
संबल- ओ -संस्कार
का खजाना है -----
यारो ---
ममता से उसका
गहरा नाता है ----
उसकी व्याख्या तो बस एक
बहाना है -------
अंतस में उजाला ही उसका
फसाना है -------
खुद को फना करके
जीवन का दर्शन
समझाना ही उसका
आइना -ओ -बहाना है --
जितना लिखू
सब कुछ बहुत
पुराना है ----
माँ ---
एक शब्द नहीं सारे
 जीवन  का  एक खजाना
है -----
माँ
एक शब्द नहीं ---------
--------------सभी माँ को मेरा अभिनन्दन और नमन तुम अद्भुत हो-----साकार ---सत्य ---और मेरी स्म्रतियो में समाहित तुमसे अलग मेरा कोई अस्तित्व नहीं ------

आदेश


मेरे दोस्त का आदेश -----
उतेजक लिखो ---
आंदोलित करो----
तुम इतिहास हो कुछ तो 
सार्थक कहो ---
मै परेशान ---एक साथ इतनी 
विवेचना ---
केसे समझाऊ ------
इतिहास बनता नहीं 
बनाया जाता है ----
और मै कोई 
बिता वक्त नहीं 
जो वापस नहीं 
आ सकता ------?

अजब दुनिया ---गजब लोग


पत्नी ने कहा बाजार जाओ
जरुरत की चीज तो लाओ
सामान कम है
जरुरत में दम है ------
मेने भी गंभीरता  समझी
योजना की लिस्ट पकड़ी
किराने की दूकान पहुंचा
अपनी जरूरतों को फेंका ---
दूकान दार बोला साहब --आज आप --?
मालकिन कहाँ है ----?
मेने आक्रोशित बोला
मै और वो क्या अलग है ----
वो मुस्काया
मुझे बहलाया ---
मित्रो------
तभी एक घटना घटी ---
गोद में मासूम बच्चे को लिए
एक भिखारिन प्रगती---
ऐ-बाबू बहुत भूखी हु ----
बच्चे ने भी नहीं कुछ खाया ?
उसकी याचक  निगाह ---
मेरा बेबस मन ---
और
दूकान दार का प्रश्न ---?
तीनो एक साथ ---
विषम घटना --विवेचना कठिन ---
मेने अपनी योग्यता दिखलाई
चाँद पेसो की जगह --
कीमती बिस्कुट का पैकट
बच्चे को दिया ---
भिखारिन ने हिकरत से देखा  
बोली ये नहीं पैसा --?
मेने  कहा --पैसा भूख नहीं
 जरुरत भोजन की है ---
दूकान दार निर्विकार
मै अपने गंतव्य पर
दोस्तों ----
पत्नी को अपनी
होशियारी बताई
वो मुस्काई ---
बोली ठीक है ----
मै असमंजस में
दूकान दार का निर्विकार होना ----
पत्नी का मुस्काना ---
दोनों एक साथ -----?
ज्ञात हुआ ---
भिखारिन ने बिस्कुट
दूकान में आधे दाम पर
बेचा ----
नगदी गिना --
और लीन---
अब मुझे आभासित  है
भिखारी का करुना उकेरना ----?
दूकान दार का निर्विकार होना ?
और पत्नी का मुस्कराना --------?

चिंतन


तो उलझा रहा उलझनों की तराह -----------
**************************************
आज का चिंतन --------
************************आत्मा का शरीर में रहना ही जीवन है और आत्मा का शरीर से अलग होना ही म्रत्यु है-----आत्मा का रूप अति सूक्षम होता है ---वो अविनाशी है ----आत्मा का निवास भ्रगुति के बीच होता है ---माया में फंसकर जीव अपने वास्तविक मूल स्वरुप को भूल कर काम , क्रोध और मोह के दलदल में फंस जाता है लेकिन अपने समस्त मैल एवं पापो का परिमार्जन कर मूल स्वरुप में रहना ही योग है ----योग संसार त्याग नहीं वरन संसार के प्रति आसक्ति का त्याग होता है -----
------------मित्रो हम इस कथ्य के कितने करीब अपने को पाते है क्या कभी आत्म चिंतन इस दिशा में किया है यदि नहीं तो आज से आरम्भ करे -----आपको शान्ति का आभास होगा ----आज इतना ही ----
--------------------------------------------------------------सम्मान सहित आप का रविन्द्र 

चिंतन


तो उलझा रहा उलझनों की तराह -----------
**************************************
आज का चिंतन --------
************************मित्रो देश में एक आम आदमी के जीवन की त्रासदी की एक बानगी देखिये -----  
एक राजगीर पुरे जीवन  दुसरो के मकानों का निर्माण करता है ----पुरे जीवन लगन से मकानों का सुंदर निर्माण उसकी योगिता थी ----जीवन के अंतिम पडाव में काफी थकान के अनुभव के कारण उसने एक दिन  अपने मालिक से अपने काम के प्रति रेतायेर्मेंट  के बारे में अनुरोध किया ----
मालिक ने उसके अच्छे कामो और सद चारित्र के कारण कहा की ---कोई बात नहीं बस मेरा अंतिम काम एक मकान और बना दो फिर तुम रितायेर्मेंट के लो ---राजगीर ने कहा चलो ये ही सही ----
मकान निर्माण में लग गया ---कुछ समय बाद जब मकान बन गया तो वो मालिक के पास गया और कहा ---सरकार मकान तेयार हो गया है ---आप देख ले ----मालिक उस राजगीर के साथ मकान पर गया ---देखा मकान तो बन गया था किन्तु वो उस राजगीर की कारीगरी के अनुसार निर्मित नहीं था ---
उसने राजगीर से कहा ---ये मकान मेने तुम्हारे लिए बनवाया था ---ये तुम्हारा है ----राजगीर स्तब्ब्त ---
सार -----मन से लगन का नाता होता है ----क्या काम का सही मूल्यांकन हो सका ---?
आप का विवेक क्या कहता   है ----
-----------------------------------------------------------------आपका रविन्द्र 

अनुभूति


में कोई इतिहास नहीं जो -----
दोहराया जाऊंगा --------
में द्रोपदी के कटु वाक्य नहीं जो -----
 युग परिवर्तन
करवाओं गा -----
में वो अभिमनयो भी नहीं जो ------
चक्र व्हियु  में
फसने जऊँगा-----
में एक काव्यात्मक अनुभूति हू
जो हमेशा
गाया जऊँगा !!!!!!!!

सेलाब


उनकी सोंच
मेरा प्रयाश्चित
सेलाब के  क्रास पर लटका मानव
जर्जर मानसिकता ----
कभी एक ना हो पाई ----
बासंती उल्लास में
कभी सज ना पाई
ऐसे में तुम्हे प्रणाम !

हथोडी


मजबूत इस्पात पर
सोनार की हथोडी
जब कभी पड़ी है ---
घनी चिटकन  के स्पर्श की पीड़ा
तभी बढ़ी है !!!!!!!

तुम बहुत याद आती हो --------


उसके पेरो में पड़ी बिवाई
उसके खेत में सूखे की फटन
उसके पेट में  भूख की पीड़ा ----
उसके आँखों में याचक की पुकार --
वो इंकलाबी नारे ---
वो सौद खोरी की आग
बेबस द्रस्ति---
जब कभी जोडती है
सच में माँ तब ----
तुम बहुत याद आती हो --------

साधन बड़ा या साधना


चर्चा चली थी ----
साधन बड़ा या साधना ????????????
अज्ञानी बोला ----
आकार में मुझे ---
रोटी ही भाही है ---
मित्रो --- वो अज्ञानी सत्य था
अपने सोंच में पला था ---
रोटी की पीड़ा और आकार से  दोस्तों
उसका लेना था ---
इसी लिए उसका
ये कहना था -------!

आत्म बल


देखा -------
वे स्वम उपर परम धाम से
आते है ----देह से परे
परम धाम जाने का
रास्ता बताते है ----युक्ति सिखाते है
दलदल में फंसे समाज की -----
फिर --------
खुद ही ब्रहम हो जाते है -----
आत्म बल को प्रणाम -------!

दुखड़ा


जी है ----मै
रो रहा था -----
अपने पुराने जूतों का
दुखड़ा बोल रहा था --जब तक -----की
मैंने ---एक
टांग हीन को नहीं ----
देखा -------

जब कभी मै


जब कभी मै
सच्चाई , मिटटी और रोशनी की
बात करता हू----
विनम्र बनता हू---
तुम मुझे जूठे लगते हो ----
तुम और तुम्हारा ये लम्बा होता अस्तित्व ---
नकारता है ----
सच्चाई -मिटटी और रोशनी को -----
चोहराहे पर खडा ---
वो दुर्बल काया ----
हकीकत की गर्त पर
ला फेकता है ----
चीत्कार करता है फिर
रोता है -----
एक दिवा स्वप्न की भांति---
तुम्हारा आना
आत्म संयम और आत्म चिंतन
 का  खोना ----
हमारे और तुम्हारे बीच --
होते द्वन्द में ---
उभरते अक्स के बीच
विचारों का टकराव
का होना ---
मुझे फर्क नहीं पड़ता ---
तुम जिओ या मरो ---
हम तो बुध जीवी का
आवरण डाले है ----
गरीबी और बीमार तंत्र की
कविताए लिखते   है ---
आंसू भरी कथाओं को गढ़ते है ---
कर्तव्यों नहीं
अधिकारों की बात करते है ----
तो क्या ये मै ही हू ----
हकीकत को सोपान के मंथन में
व्यस्त अपने को
दूर कही फिर और फिर
कही खोता पाता हू
-जी है ---- जी है ---
मै एक अभिव्यक्ति हू जो
उभर -उभर आता हू -------

अत्यधिक ज्ञान प्राप्ति की पिपासा
बहुत सारा मंथन ------
पीपल का वृक्ष और ----
उसकी डाली ------
लोग कहते है -----
वो अक्सर वही
दिखता है -----
मै भी उत्सुक ----
लोगो का कथन सत्य है ---
जा पहुंचा
उस पीपल के वृक्ष पर
सारगर्भित  लेकिन
विक्षिप्त -
वाद -विवाद -और
संवाद ------
फंसी अभिव्यक्ति के बीच---
लोग कहते है ----
मेरे अक्स को ब्रह्म राक्षस --------

कब्र


संजोय रखे है गुलदानो  में गुल -ए- ख़ास उसने
कोई पहचान शायद बनाई है मेरे लिए
अपनों ने तो भुला दिया दफ़न से पहले
किसी मेहेरबा ने कब्र सजाई है मेरे लिए 

लम्हों - पलों


लम्हों - पलों का क्या जिक्र करू मै
 सदियों को भी जी आया -------
 श्वेत वस्त्र में लिप्त तन
 स्पंदित होता है मन
 फिर बहते अहसासों के बीच कही में
 सदियों को भी जी आया ---
 मंचो के गिरते पर्दों -ओ -पुलकित तन -मन----- पर
 विचलित अद्भुत मर्म के मध्य
 स्वप्न खुले तो देखा फिर
 सदियों को मै जी आया -----
 चेतन मन फिर ---
 अंतस की वेदना क्यों ये सहता है ---
 चन्दन की खुश्बू-ओ -नागफनी के संग .
 अमलतास वाही पर खिलता है ----
 देखो मित्रो ये सच है की ---
 वर्तमान की डोर पकड़ मै ---
 सदियों को भी जी आया ---
 मै सदियों को फिर जी आया -------

गम


मन दुखता है जब मेरा
 तो मीत  भी रोते है
सब साज भी रोते और----
 मेरे गीत भी रोते है ---
जी है ---सूना -सूना सा कोना है
घर का ----
अब तो हर एक गम भी रोते है ---

कशिश जागी है


आज फिर ये कशिश जागी है
साथ हो तुम मेरे और ये तन्हाई है --
आज फिर तुमने ढलकाया है प्यार का आँचल
आज फिर तुम महक बन कर के आई  हो
इसी लिए ऐ - दर्दे -आदम --
खामोशी में हमनी ये पनाह पायी है ---
आज फिर ये कशिश जागी है
मेरे चाहने से क्या होगा जनाब
 अंधेरो को आज उजालो ने बक्शा ---
कोई समझा ही नहीं ऐ-दिले -मंजर
आज फिर किसी ने जख्मो पर नमक फेका
मेने तो हमेशा कहा किया , बेचू दर्द पर
बेरहम अक्स ने फिर   नकाब पर  आज
फिर कोई  पर्दा  फेका ----
आज फिर ये कशिश जागी है------

चांदनी


उस चांदनी रात में
लो तो झिलमिलाती तो बहुत होगी
गर वो जुल्फ सवारने के लिए
अब कोई हाथ चाँद तक
ना पहुंचा होगा -----

दोष


हम दोष क्यों दे ---
ऐ -दिल -तुझे ---
अब हर शक्श की किस्मत में ---
इंसा नहीं
होता ------

नाम


आगाज तो होता है --मित्रो
अंजाम नहीं होता
मेरी पूरी कहानी में
अब वो नाम नहीं होता -----

कोशिश


खुद को पहचानने की
कोशिश में
रोई तो खूब होगी ---
मगर तुमको नहीं पता
किस कदर निखर गयी हो तुम
कोई फूल जेसे शबनम में  ---
निखर जाता है कभी ------