Thursday, May 26, 2011

चिंतन


अब रहने दो इतिहास की बाते
हमने तो इसको भी बदलते देखा  है
जल जाने दो इसके महिमा मंडल को
हमने तो इसको भी बदलते देखा है
देदो संसद या ताजमहल , होटल या आँगन
संगम की गंगा में अब इतने शक्ति नहीं
सिंची जिसने सूखी चिंतन निष्काम भाव से
बोलो दुनिया में होगा एसा रक्त कही
तो आओ
आ आ कर  देखो
 फुटपातो पर सोया भविष्य
एसा लगता जीवन की बाजी हारे है ---
पर नहीं - नहीं निस्वासो में भी भी है लपते
ये बुझे हुए अरमान नहीं अंगारे  है !
तो फिर ऐसे चिंतन में फिर रहने का क्या मतलब
जहा कफन की छत पाने मानवता लडती है
जब शब्द  नहीं अभिव्यक्ति  नहीं तो
मजबूरन चिंतन ही   बदलनी पडती है !

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