Saturday, May 28, 2011

धरा
मौन हो चुकी वेदनाये 
अब धरा पर क्या कहूँ --
संवेदनाओं के भवर में 
वेदना की क्या कहूं----
आकाश गंगा के समंदर 
पर धरा को क्या कहूँ---
एक मजलूम अवस्था    
के वाद को क्या कहूं---
ज्ञात है मुझको अभी भी 
तुमने सहा क्या -क्या यहाँ ---
सहन की सीमाओं को तो देखो 
अब धरा पर क्या कहूँ-----
मच रहा है तांडव --
भूंख -ओ -बेचारगी  --
हो रहा खननं तो देखो ----
अब धरा पर क्या कहूँ---
एक मुठी अनाज की चाहत  ---
खुद ही देखो ----ऐ जहां-----
ऐ-धरा के वासियों 
अब तो दोहन रोक  लो  ---
खनिजो की खान को मित्रो 
अब तो ज़रा सोने तो   दो ---
चेतना भी अब तो खोई 
इस धरा पर-----
तुम ही बोलो ऐजहां 
शब्द ही आवरण है झूठ सब 
अभिव्यक्तिया ----
ऐ धरा अब तुम ही बोलो 
खो गयी है चेतना  ----
बस ये अब याद नहीं ---
तू धरा हो तुम से हम है 
इससे अधिक 
और क्या
 में बोलूं 
ऐ धरा तुमको 
प्रणाम ----!!!!! 


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