Thursday, May 26, 2011

मीमांसा


वर्तमान समाज में आज हमारी वैचारिक  सोंच चाहे जितनी उंचाइयो को प्राप्त कर के किन्तु मानसिकता अभी भी दासता का जीवन जीने के लिए मजबूर है ---
हमारे समाज में आज भी कई ऐसे पहलू है जो अपने वजूद पाने के लिए सतत संघर्ष रत है ------नाजायज संतान इसमे से एक प्रमुख समस्या  है ---
हम आज समाज में " नाजायज संतानों " के प्रति सम्मानजनक मानसिकता नहीं बना पाए है !----क्या कारण है ----सामाजिक शर्मिंदगी या अपराध बोध का छुपाओ ----संकीर्ण मानसिकता या दोहरा चरित्र -----????
कुछ देर के  आवेश में लिया गया कामुक आनंद या बेचारगी का दोहन --- वजह जो भी हो , हम मानसिक ,सामाजिक ,बोधिक या अन्य किसी कारण से आज इन व्रर्ण शंकरो को समाज की मुख्य धारा से और शायद अपने से जोड़ नहीं पा रहे है ! लेकिन हर्ष है की हमारी न्याय पालिका ने एक नया प्रयोग कर के जर्जर होती सामाजिक संरचना में मूल -चूल परिवर्तन कर नया सन्देश दिया है ------
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा १६ (३) की नये सिरे से व्याख्या की है ! अब सामाजिक उपेछा और पारिवारिक भेद -भाव के शिकार अवेध संतानों  के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फेसले में नाजायज संतानों के पक्ष में बोलते हुए न केवल उनके माता पिता दुवारा अर्जित सम्पति में हिसेदारी बल्कि पैत्रिक सम्पति में उनके  हक़ को समर्थन दिया है ----
न्याय मूर्ति सी . ए. सिंधवी एवं न्याय मूर्ति  ए . के . गांगुली की पीठ इसके किये बधाई की पात्र  है ! अदालत का यह कथन की ----यह याद रखना की अभिभावकों के बीच सम्बन्ध को भले ही कानूनन अनुमति ना मिले ---पर ऐसे संबंधो के परिणाम स्वरुप बच्चो के जन्म को अभिभावकों के सम्बन्ध से परे रखकर देखना चाहिये !---
अनचाही अवेध संतानों को निर्दोष करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट का फेसला एक सुराख से रोशनी पैदा करने का एक साहसिक , पारदर्शी या मानवीय संवेदनाओं की उतम मीमांसा है ---!
क्या आप भी एस विचारों से सहमत है -------------------? आप के विचार आमंत्रित है -------

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