मौन हो चुकी वेदनाये
अब धरा पर क्या कहूँ --
संवेदनाओं के भवर में
वेदना की क्या कहूं----
आकाश गंगा के समंदर
पर धरा को क्या कहूँ---
एक मजलूम अवस्था
के वाद को क्या कहूं---
ज्ञात है मुझको अभी भी
तुमने सहा क्या -क्या यहाँ ---
सहन की सीमाओं को तो देखो
अब धरा पर क्या कहूँ-----
मच रहा है तांडव --
भूंख -ओ -बेचारगी --
हो रहा खननं तो देखो ----
अब धरा पर क्या कहूँ---
एक मुठी अनाज की चाहत ---
खुद ही देखो ----ऐ जहां-----
ऐ-धरा के वासियों
अब तो दोहन रोक लो ---
खनिजो की खान को मित्रो
अब तो ज़रा सोने तो दो ---
चेतना भी अब तो खोई
इस धरा पर-----
तुम ही बोलो ऐजहां
शब्द ही आवरण है झूठ सब
अभिव्यक्तिया ----
ऐ धरा अब तुम ही बोलो
खो गयी है चेतना ----
बस ये अब याद नहीं ---
तू धरा हो तुम से हम है
इससे अधिक
और क्या
में बोलूं
ऐ धरा तुमको
प्रणाम ----!!!!!
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