अब रहने दो इतिहास की बाते
हमने तो इसको भी बदलते देखा है
जल जाने दो इसके महिमा मंडल को
हमने तो इसको भी बदलते देखा है
देदो संसद या ताजमहल , होटल या आँगन
संगम की गंगा में अब इतने शक्ति नहीं
सिंची जिसने सूखी चिंतन निष्काम भाव से
बोलो दुनिया में होगा एसा रक्त कही
तो आओ
आ आ कर देखो
फुटपातो पर सोया भविष्य
एसा लगता जीवन की बाजी हारे है ---
पर नहीं - नहीं निस्वासो में भी भी है लपते
ये बुझे हुए अरमान नहीं अंगारे है !
तो फिर ऐसे चिंतन में फिर रहने का क्या मतलब
जहा कफन की छत पाने मानवता लडती है
जब शब्द नहीं अभिव्यक्ति नहीं तो
मजबूरन चिंतन ही बदलनी पडती है !
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