Wednesday, July 27, 2011

दिहाड़ी


एक आईने के तीन रूप 
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फुटपाथ पर सोता भविष्य 
मुझे खींचता है अपनी तरफ 
बेबस लाचारी झलकती है 
उनकी आँखों में तब ----- 
माँ का आँचल भी कम हो चला है 
 - ऐ- हमदम 
दफ़न हो चले हैं  हर एक स्वप्न 
अब यहाँ --- रोटी की मार -ओ- मज़बूरी 
इन्कलाब के नारे और बहकते परिद्रश्य  
छोटे कदम और भारी बोझ 
सर पर गारा मट्टी का ढेर 
सुखी  रोटी और खडा  नमक 
तानो की मार और भीगा मन 
बुझती लपते धुंध ही धुंध 
ये व्यथा नहीं सत्य है दोस्त 
रात की कफ़न में लिपटी उम्मीद और 
टकराते विचार आज हम 
बेबस बचपन को दिहाड़ी के किये 
रिरियाते हुए देखते है ---------
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मध्यम सामान्य वर्ग 
आक्रोशित विवेचना 
आगे बढने की  चाह 
पुलकित तन मन 
संस्कार गत बात और 
पेरो में पड़ी बिवाई -----
आगे का रास्ता -ओ -
पीछे खायी ---------
मात्र दिहाड़ी के लिए आज भी 
हम रुके है --------
कही  भोजन की पीड़ा 
संवेदनाओं पर भारी 
लटकती मानसिकता और 
बेगारी ---
एक दिवा स्वप्न का भ्रम उकेरते है 
हम फिर खड़े --खड़े 
अपना अक्स उकेरते है -----
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शब्दों  की व्यंजना 
और मेरा व्यक्तित्व 
वो रोशन सितारे वो 
मायावी दुनिया 
मात्र दिहाड़ी के लिए 
समझोता और मेरा 
नग्न प्रदर्शन ---
आज प्रासंगिक सा हो गया है 
ख़ूबसूरत आवरण की खाल 
जब केचुल उतारती है कभी 
स्पंदित दिल की पुकार 
 धिकारती है तभी ---- 
उस वक्त की सतह पर 
सहम -सहम  जाता हूँ -----
नकारता हूँ अपनी सोंच को 
दिहाड़ी के लिए फिर 
रुक -रुक कर 
बढ़ जाता हूँ ------------------?

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