दोहरी मानसिकता को जीना
भी एक कला है यारो
सुंदर आवरण से ढका हुआ मै
कितना वीभत्स हूँ ---तुमको क्या पता
दम्भी सोंच के बीच
लटकता मेरा अस्तित्व
नकारता है ---पूरे
व्यक्तित्व को ---
फिर भी तुम सराहते हो
सम्मानते हो ---सत्कारते हो
क्यों ----?
अज्ञात से ज्ञात का
रहस्य ही
तुम्हारी खोज होगा ---
फिर नग्न मै
आरंभिक अवस्था का
आभास दूंगा -------
तब शायद तुम तुम ना होगे ---
हम तुम में
पिघल रहे होंगे -----
No comments:
Post a Comment