Thursday, May 26, 2011

असंतुलित चेतना


जहर उगली वो जबान
तुफानो का संकेत है ---
कभी हम ना थे
कभी तुम ना होगे ----
वाचाल मगर
असंतुलित चेतना
संतुलन के आभाव में
दफ़न को चली है
हम भीरु
आवरण में
लिपटे -सिमटे
विद्रोही कविता
की
कल्पना संजोय
मुखरित व्यंजना की ---
तलाश में
दर-दर भटकते हुए ---
दार्शनिक होने का
भ्रम उकेरते है ----
इन झंझा वातो में
गुलामी की गंध
बस्ती है -----
हे महा मानव
एक उपकार कर
मुझे संतुलन का वो
चक्र दे जो----
दर्पण में अपना अक्स
ना देख पाऊ----------
यही मेरा प्राय्चित होगा -----?

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